घरों में पलता मौन विस्फोट : नेपाल से हमें क्या सीखना चाहिए



विभु मिश्रा 
 नेपाल में हाल ही में भड़की युवाओं   की हिंसा कोई सामान्य घटना नहीं है।   संसद से लेकर सड़कों तक आग और   उपद्रव के दृश्य केवल एक पड़ोसी देश   की त्रासदी नहीं हैं, बल्कि हमारे अपने   भविष्य की झलक भी हो सकते हैं।   जिस बारूद का ढेर वहां फूटा, उसकी   चिंगारी हर घर, हर गली और हर शहर में सुलग रही है।

सोशल मीडिया : नई बेड़ियों की जंजीर

आज का युवा ज्ञान और मूल्यों के बजाय रील्स और क्लिप्स में डूबा है। शिक्षा की किताबें एक ओर रख दी गई हैं और उनके स्थान पर मोबाइल स्क्रीन ने जगह ले ली है। मनोरंजन और जानकारी का संतुलन अब खत्म हो चुका है। सस्ती हँसी, सतही चर्चाएँ और बिना अर्थ की बहसें उनकी प्राथमिकता बन गई हैं। परिणाम यह हुआ कि विचार करने की क्षमता कमजोर हुई, धैर्य और अनुशासन लुप्त हो गए।

युवाओं के दिन का अधिकांश हिस्सा डिजिटल लत में गुजरता है। यह लत उतनी ही खतरनाक है जितनी शराब या नशे की। फर्क बस इतना है कि इसे समाज ‘आधुनिकता’ का नाम देकर स्वीकार कर चुका है। लेकिन क्या हमने सोचा है कि जब यह आभासी नशा छिन जाएगा तो युवा किस हद तक टूट सकते हैं?

नेपाल की आग : चेतावनी की घड़ी

नेपाल में हुआ उग्र आंदोलन इसी डिजिटल मोहभंग का नतीजा था। सोशल मीडिया पर लगी रोक ने युवाओं को पागलपन की हद तक गुस्से में ला दिया। उन्होंने संसद, होटलों, दुकानों, गाड़ियों तक को आग के हवाले कर दिया। लेकिन विडंबना यह रही कि जिस देश को उन्होंने जलाया, वह उन्हीं का अपना था। जिस संपत्ति को नष्ट किया, वही उनकी आने वाली पीढ़ियों का सहारा थी।

यह व्यवहार किसी बिगड़े बच्चे जैसा है, जिसे जब पसंदीदा खिलौना छीन लिया जाए तो वह ज़मीन पर लोटने लगे, चीखे-चिल्लाए और आसपास की हर चीज़ तोड़ डाले। फर्क बस इतना है कि यहाँ "खिलौना" सोशल मीडिया था और "खेल का मैदान" पूरा राष्ट्र।

जिम्मेदारी किसकी है?

यह प्रश्न केवल युवाओं तक सीमित नहीं है। दरअसल, पूरी व्यवस्था इस विस्फोट की जिम्मेदार है। माता-पिता ने बच्चों को अनुशासन के बजाय अत्यधिक लाड़ दिया। समाज ने सीमाएँ तय नहीं कीं। स्कूल और कॉलेज ने छात्रों को केवल अंकों और डिग्रियों की दौड़ में धकेला, पर जीवन मूल्यों और संस्कारों से उन्हें वंचित रखा।

सरकारें और व्यवस्थाएँ भी दोषी हैं। उन्होंने अरबों-खरबों कमाने वाली टेक कंपनियों को युवाओं के मन-मस्तिष्क से खेलने दिया। किसी ने यह नहीं सोचा कि यह स्क्रीन-नशा एक दिन सांस्कृतिक, सामाजिक और मानसिक संकट में बदल जाएगा।

संस्कृति से कटता हुआ युवा

आज का युवा अपनी जड़ों से तेजी से दूर हो रहा है। उसके पहनावे, खानपान, भाषा और विचार सब पश्चिमी चमक से प्रभावित हैं। उसे अपने त्यौहार, अपने इतिहास और अपने महान व्यक्तित्व याद नहीं, लेकिन विदेशी फिल्मों, सितारों और ट्रेंड्स की पूरी जानकारी है। जब पहचान ही बाहर से ली जाए, तो देश और समाज से लगाव कैसे बचेगा?

यह सांस्कृतिक दूरी धीरे-धीरे "असंतोष" में बदल रही है। जब भीतर खालीपन हो, तो गुस्सा ही शेष रह जाता है। और यही गुस्सा समाज और राष्ट्र के लिए विस्फोटक खतरा बन जाता है।

हमारे सामने असली सवाल

अब सवाल यह नहीं कि नेपाल क्यों जला। असली प्रश्न यह है कि क्या हम अपने समाज और परिवारों को जलने से बचा पाएँगे? क्या हमने यह मान लिया है कि डिजिटल नशे से ग्रस्त यह पीढ़ी स्वतः ही सुधर जाएगी? या हम अभी भी समय रहते ठोस कदम उठाएँगे?

यह मान लेना भूल होगी कि यह संकट केवल नेपाल तक सीमित है। वही बारूद हमारे घरों में भी पल रहा है। हर बच्चे के हाथ में मोबाइल, हर कोने में इंटरनेट और हर दिन घटती संवाद की परंपरा हमारे लिए गंभीर खतरे का संकेत है।

रास्ता क्या है?

समाधान केवल आरोप लगाने से नहीं निकलेगा। परिवारों को अपने बच्चों के साथ समय बिताना होगा। स्कूलों को अंक गिनाने से आगे बढ़कर मूल्य और अनुशासन सिखाना होगा। सरकारों को डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर नियंत्रण की ठोस नीतियाँ बनानी होंगी। और सबसे जरूरी, युवाओं को यह समझाना होगा कि उनकी असली ताकत सोशल मीडिया पर नहीं, बल्कि उनकी शिक्षा, उनकी संस्कृति और उनके धैर्य में है।

नेपाल की घटनाएँ एक दर्पण हैं जिसमें हम अपना भविष्य देख सकते हैं। अगर आज हमने चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया, तो कल वही आग हमारे मोहल्लों और घरों को भी निगल सकती है। बारूद हर जगह है। हमें बस यह तय करना है कि इसे समय रहते कैसे निष्क्रिय किया जाए।

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